Wednesday 20 April 2011

बेटी या बेटा तो अपना ही है





चाक पर चढ़ी माटी
घूमती है चाक पर,
खेलती है कुम्हार के हाथ,
कभी पानी लगाता है कुम्हार
कभी ढ़ालता है उसे एक आकार में
धीरे-धीरे लेने लगती है माटी आकार
फिर बनता है घड़ा, सुराही,गुल्लक या कुछ और
लेकिन पकने पर ही हो सकता है, इन सबका उपयोग।
लेकिन फिर नहीं बनता है इनमें से कुछ भी
यदि रह जाती है माटी गीली
या नहीं दे पाता है कुम्हार ध्यान
नहीं लगाता है सही समय पर और सही जगह पर हाथ
तो वह बिगस जाती है
और
रह जाती है, माटी की माटी ।
पर माटी तो माटी है, जैसा ढ़ालोगे, ढ़ल जायेगी ।
पर बेटी या बेटा तो अपना ही है ।

Monday 17 May 2010

बालिका वधू : टूटते सरकारी वायदे

इस साल की अक्षय तृतीया भी बाल विवाहों से अछूती ना रह सकी। शिवपुरी में मुख्यमंत्री कन्यादान योजना में हुआ बालविवाह, इस बात की पुष्टि करता है कि प्रदेश में बालविवाह बदस्तूर जारी है। मध्यप्रदेश बालविवाह के संदर्भ में 57.3 प्रतिशत के साथ चौथे स्थान पर है। लेकिन बालविवाह के दुष्परिणाम इससे भी ज्यादा घातक हैं मसलन प्रदेश में 56 प्रतिशत महिलायें खून की कमी का शिकार है। विशेषज्ञ मानते हैं कि माताओं की मृत्यु के पीछे एक बड़ा कारण बालविवाह भी है। प्रदेश का मातृत्व मृत्यु अनुपात 335 प्रति लाख है । प्रदेश में 60 फीसदी बच्चे कुपोषित हैं। हालांकि महिला एवं बाल विकास विभाग मंत्रालय के नेशनल प्लॉन ऑफ एक्‍शन फॉर चिल्ड्रन, 2005 के अनुसार 2010 तक बालविवाह को पूरी तरह से खत्म करने का लक्ष्य तय किया गया है। वर्ष 2010 की आख़ातीज भी आ गई है और बालिकाओं के वधू बनने का सिलसिला बदस्तूर जारी है। यहां पर फिर सरकारी वायदा टूटा है । खैर लक्ष्य तो लक्ष्य है ! फिर बना लिये जायेंगे और सरकारी लक्ष्य सही मायने में तभी सरकारी लक्ष्य होता है जबकि वह तय ना हो पाये। असल सवाल तो लक्ष्य के प्रतिबध्दता में बदलने का है ...............!!

प्रदेश के मुखिया शिवराज सिंह चौहान यानी ''मामा'' का अपनी भांजियों से उनकी सुरक्षा का किया गया वायदा उस समय टूटा जबकि मुख्यमंत्री कन्यादान योजना में ही शिवपुरी में एक बालिका वधू के हाथ पीले हो गये। अभी कुछ दिन पहले ही बैतूल में दो नाबालिगों की शादी बैतूल में हुई थी। गौराखर गा्रमपचांयत के सरण्डई गांव की निवासी कमला और सुशीला दो आदिवासी बालाओं के नाबालिग होने की सूचना उनकी शादी के बाद भाजपा विधायक चैतराम मानकर और जिला पंचायत सदस्य भिखारीलाल के माध्यम से प्रकाश में आई। हर बार और बार-बार उस फिल्मी जुमले ''मैं हूं ना'' से माताओं और बेटियों की प्रदेश में उनके अधिकारों की सुरक्षा का संकल्प दोहराने वाले षिवराज सिंह की व्यक्तिगत देखरेख में चलने वाली योजना में बालविवाह होना अपने आप में सरकारी नाकामियों को साफ करता/चुनौती देता है। बहरहाल सरकारी स्तर पर यह चूक कैसे हुई, इसकी जांच के आदेश दे दिये गये हैं।

सरकार के लाख प्रयासों के बाद आज भी बालविवाह बदस्तूर जारी हैं। बालविवाह, बच्चों के सभी बालअधिकारों का उल्लंघन करता है। यह बच्चे के शिक्षा, स्वास्थ्य, सर्वांगीण विकास, सहभागिता और जीवन के अधिकार को चुनौती देता है। दरसअसल बालविवाह जितना सामाजिक अभिषाप है, उतना ही एक राजनीतिक सवाल बनकर उभरा है। राजनीतिक दलों के नुमांईंदे और चुने हुये जनप्रतिनिधि भी इन विवाह समारोहों में उपस्थित रहते हैं लेकिन अपने वोट बैंक के चक्कर में कोई भी इस कुप्रथा पर बात करने को राजी नहीं है।

यद्यपि बाल विवाह तो देन है मध्ययुग की, जब कि बालिकाओं को आतताईयों की कुदृष्टि से बचाने के लिये अभिभावक उन्हें विकसित होने के पूर्व ही विवाह के बंधन में बांधने लगे। कारण तो और भी हैं। राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो भी बालविवाह के अन्य कारणों की ओर जाने को विवष करता है। नवीनतम आंकड़ों के अनुसार मध्य प्रदेश, देश में महिलाओं के विरुध्द होने वाले अपराधों में सबसे अव्वल नंबर पर है। दलित और आदिवासी महिलाओं पर बलात्कार व अन्य तरह की प्रताड़नाओं में भी मध्यप्रदेश नंबर एक पर/सर्वोपरि है। अतएव आंकड़े बताते हैं कि केवल इसे सामाजिक कुरीति की वजह से ही नहीं बल्कि बच्चों की सुरक्षा से जोड़कर भी देखा जाता है, जो कि वाजिब कारण है। बच्चों की सुरक्षा के मामले में तंत्र पूरी तरह से फेल नजर आता है, और जो बालविवाह के बीजों को पनपने में मदद करता है।

विडंबना यह भी है कि बालविवाह पर होने वाली बहसों के केन्द्र में कभी भी बालक-बालिका नहीं होते हैं जबकि बालविवाह का सीधा संबंध बालक-बालिका पर असमय जिम्मेदारी लादने से शुरु होता है और बाद में स्वास्थ्य संबंधी दिक्कतों पर जा ठहरता है। बालविवाह बच्चों को उनके बचपन से भी वंचित कर देता हैं। समाज के कई कुतर्कों के आगे इन बच्चों का शारीरिक, मानसिक, सामाजिक व शैक्षणिक विकास कहीं गौण हो जाता है। दरअसल में यह समस्या एक जटिल रुप धारण किये हुये हैं। गरीबी और अशिक्षा भी इसका एक प्रमुख कारण है। इस कुरीति के पीछे कई और कुरीतियां भी हैं जैसे दहेज प्रथा।

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के तृतीय चक्र के आंकड़ों (2005-06) की मानें तो हम पाते हैं कि भारत में 47.4 प्रतिषत् महिलाओं का विवाह 18 साल के पूर्व हो गया था। प्रदेश स्तर पर जायें तो बाल विवाह का सर्वाधिक प्रचलन बिहार (69.0 प्रतिशत), प्रतिशत राजस्थान (65.2 प्रतिशत) तथा झारखण्ड (63.2 प्रतिशत) में पाया गया है। मध्यप्रदेश बालविवाह के संदर्भ में 57.3 प्रतिशत के साथ चौथे स्थान पर है। बालविवाह का सबसे कम प्रचलन गोवा (12.1 प्रतिशत) हिमाचल प्रदेश (12.3 प्रतिशत) व मणिपुर में (12.9 प्रतिशत) में पाया गया।

जिला स्तरीय स्वास्थ्य सर्वेक्षण (2007-08) के हवाले से प्रदेश को देखें तो ज्ञात होता है कि मध्यप्रदेश के 4 जिलों (बड़वानी, शाजापुर, राजगढ़ व श्योपुर) में आधी से अधिक महिलाओं का विवाह 18 वर्ष की उम्र के पूर्व हो चुका था। यदि ग्रामीण परिवेश को देखें तो 6 जिलों में 50 प्रतिशत से अधिक व 8 जिलों में 40-50 प्रतिशत के मध्य महिलाओं का विवाह 18 वर्ष की उम्र के पूर्व हो चुका था। जाहिर है कि यदि इतनी जल्दी लड़कियों का विवाह होगा तो बहुत कम उम्र में वे गर्भवती हो जाती हैं। ऑंकड़े यह भी दर्शाते हैं कि प्रदेश के 11 जिलों में कुल जन्मे बच्चों में से 15-25 प्रतिशत बच्चों के जन्म के समय माता की उम्र 15-19 वर्ष के मध्य थी।

बाल विवाह के पक्षधरों द्वारा एक तर्क यह भी दिया जाता है कि भले ही विवाह कम उम्र में किया जाता है परन्तु पति-पत्नी साथ-साथ रहना तो बालिग होने के बाद ही शुरू करते हैं इसका खण्डन भी राष्ट्रीय स्वास्थ्य सर्वेक्षण का तृतीय चक्र करता है। ऑंकड़े बताते हैं कि भारत में 15-19 वर्ष की महिलाओं में 16 प्रतिशत या तो माँ बन चुकी थी या पहली बार गर्भवती थी। यह भी माना जाता है कि किसी भी कुरीति को दूर करने में शिक्षा का बहुत बड़ा योगदान होता है परन्तु ऑंकड़ों का विश्‍लेषण करने से ज्ञात होता है कि केरल राज्य, जहाँ शिक्षा का स्तर सर्वोच्च है, में भी 18 वर्ष से कम उम्र में 15.4 प्रतिशत महिलाओं की शादी हो चुकी थी व 5.8 प्रतिशत महिलाये 15-19 वर्ष के मध्य या तो माँ बन चुकी थी या वे माँ बनने जा रही थी।

बालविवाह के दुष्परिणाम यह भी हैं कि प्रदेश का मातृमृत्यु अनुपात 335 प्रति लाख है। इसके अनुसार विगत् पांच वर्षों में प्रदेश में 30,000 माताओं की मृत्यु हुई है। प्रदेश में 56 प्रतिशत महिलायें खून की कमी का षिकार है। विशेषज्ञ मानते हैं कि माताओं की मृत्यु के पीछे एक बड़ा कारण बालविवाह भी है। इसी प्रकार प्रदेश की षिषु मृत्यु दर 70 प्रति हजार जीवित जन्म है। विगत् पांच वर्षों में प्रदेश ने 6 लाख शिशुओं की मौत हुई है। प्रदेश में 60 फीसदी बच्चे कुपोषित हैं।

यद्यपि बालविवाह को रोकने के प्रयास काफी लंबे समय से किये जा रहे हैं। इस हेतु वर्ष 1929 में 'बाल विवाह अंकुश अधिनियम' भी बनाया गया जिसे शारदा एक्ट भी कहा जाता है। इस एक्ट में कई खामियां र्थी। इन कमियों को दूर करने के लिये भारत सरकार द्वारा बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम, (पीसीएमए) 2006 को 1 जनवरी 2007 से अधिसूचित किया गया। इसका उद्देश्‍य, बाल विवाह प्रथा की प्रभावी रोकथाम के लिये पहले कानून की विफलता को दूर करना व बाल विवाह की रोकथाम के लिये एक समग्र व्यवस्था विकसित करना है।

इसके अलावा भारत द्वारा स्वीकृत अंर्तराष्ट्रीय संधियों और राष्ट्रीय कानूनों में इस बात का उल्लेख किया गया है कि बच्चों को सुरक्षा प्रदान करना और अनके बुनियादी मानवाधिकारों की रक्षा करना सरकार की जिम्मेदारी है। भारत सरकार ने बच्चों के संबंध में कई अंतरराष्ट्रीय संधियों पर हस्ताक्षर किये हैं जिसमें उन्हें शोषण से बचाने व उन्हें सम्मानजनक अधिकार दिलाने हेतु प्रावधान हैं। इन संधियों में प्रमुख हैं, संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार समझौता (यूएनसीआरसी), महिला विरोधी भेदभाव उन्मूलन समझौता (सीडॉ) और अंतरराष्ट्रीय आर्थिक सामाजिक सांस्कृतिक अधिकार प्रसविदा (ईएससीआर) प्रमुख है। इन सबके बावजूद कमोबेश बालविवाह बदस्तूर जारी है जो देश/प्रदेश/समाज पर कलंक है।

सवाल यह भी हैं कि आखिर क्या कारण है कि बालविवाह पर सारे सरकारी अभियान 'आखातीज' के समय ही नजर आते हैं। आखिर क्या कारण है कि सरकार के पांच विभागों के समन्वित प्रयासों की जगह महिला एवं बाल विकास विभाग ही थोड़ी उठापटक करता जान पड़ता है ? आखिर क्या कारण है कि कई बार मंत्री/विधायक बाल विवाह के समारोहों में शामिल पाये जाते हैं क्या जनप्रतिनिधियों की कोई जवाबदेहिता सुनश्चित नहीं होनी चाहिये! बालविवाह अधिनियम की धारा 13 के अंर्तगत् कितने संवेदनशील क्षेत्रों को आखातीज या वसंत पंचमी के पहले ''सघन अनिवार्यता'' के क्षेत्र घोषित किया जाता है ? और यदि हां तो फिर वहां बालविवाह कैसे संपन्न हो जाते हैं। राजस्थान की भंवरी देवी व मध्य प्रदेश की शकुंतला वर्मा के साथ घटी घटनायें बाल विवाह रोकने का प्रयास करने वाले अधिकारियों को हतोत्साहित करती है। अत: आवश्‍यक है कि इन अधिकारियों को सुरक्षा प्रदान की जाये। क्या सुरक्षा के पर्याप्त इंतजामात उपलब्ध कराती है सरकार? सवालों की फेहरिस्त तो काफी लंबी है और इन सवालों की सूची में बालअधिकार गुम हो जाते हैं।

हालांकि महिला एवं बाल विकास विभाग मंत्रालय के नेशनल प्लॉन ऑफ एक्‍शन फॉर चिल्ड्रन, 2005 के अनुसार 2010 तक बालविवाह को पूरी तरह से खत्म करने का लक्ष्य तय किया गया है। वर्ष 2010 की आखातीज भी आ गई है और बालिकाओं के वधू बनने का सिलसिला बदस्तूर जारी है। यहां पर फिर सरकारी वायदा टूटा है । खैर लक्ष्य तो लक्ष्य है, फिर बना लिये जायेंगे और सरकारी लक्ष्य सही मायने में तभी सरकारी लक्ष्य होता है जबकि वह तय ना हो पाये। असल सवाल तो लक्ष्य के प्रतिबध्दता में बदलने का है ?

Sunday 2 May 2010

आखातीज

आखातीज, जैसा कि इसके नाम से स्पष्ट है कि हम अक्ती कि बात कर रहे हैं | इस दिन खूब विवाह होते हैं क्यूंकि इस दिन मुहूर्त नहीं निकालना होता है और| और होते हैं उन विवाहों में होते हैं बाल विवाह | बाल विवाह एक सामाजिक कुरीति है | हम (समाज) उन बच्चों की अपने मतलब के लिए शादी तो कर देते हैं लेकिन क्या हम जानते हैं कि उन बच्चों पर क्या गुजरती है !!!!!!

ये उनके खेलने कूदने की उम्र ही तो है | अपने सपने बुनने और उनको आकार देने के लिए तैयार होने की उम्र है | अभी तो वो खुद ही गुड्डे-गुड़ियों से खेलते हैं और उनका ब्याह रचाते हैं | पर हम ये क्या करने लगे अपनी खुशियों के लिए उनकी खुशियों का गला घोंट कर उनका ब्याह रचने लगे | इससे हम अपनी जिम्मेदारियों से तो हम बच गए लेकिन क्या हमने यह सोचा कि उन पर हमने कितनी जिम्मेदारी लाद दी ?

कम उम्र में शादी से न केवल बच्चों के सुरक्षा के अधिकार का हनन होता है वरन उनके स्वास्थ्य और विकास के अधिकार के साथ साथ जीवन के अधिकार का भी उल्लंघन होता है |

बालविवाह के छुए अनछुए पहलुओं पर नजर डालता ये ब्लॉग गुड्डा-गुडिया |